Monday, November 22, 2010

૨૧.૧૧.૨૦૧૦


सभ्यता का मूल्य

कवी और लेखक,अजेय जी की कुछ पंक्तियां याद आ रही है:

सांप तुम सभ्य तो हुई नहीं ?


शहर में बसना तुम्हे आया नहीं?


एक प्रश्न पूछूं,उतर दोगे ?


फिर कहाँ से सिखा डसना ?


विष कहाँ से पाया ?

यह केवल एक व्यंग नहीं है I शहरी सभ्यता की जो परिभाषा कवि की कलम से पैदा हुई है ,उसके पीछे ए़क गहरा दर्द भी छिपा है I मनुष्य कभी जंगली था,फिर वह सामाजिक प्राणी बना I ज्ञान और विज्ञानं में प्रगति करते हुए ,वह और उसकी सभ्यता अन्तरिक्ष की ऊँचाइयों तक जा पहुची I पर दूसरी ओर उसने जंगला कट डाले ,धुएं और प्रदूषण प्रकृति का दम घोट डाला ,वाहनों और कल-कारखानों के शोर से पक्षियों की चहचहाट डुबा डाली I नदी-नालों में विष बहा डाला I फिर भी वह यह दवा करता रहा की उसकी सभ्यता प्रगति कर रही है I भ्रष्टाचार,अपराध,जमाखोरी, घूसखोरी, चरित्र की गिरावट—सब एक सभी समाज के कर्णधार बन गई –ऐसे में कवि और कोई परिभाषा दे भी कैसे सकता था I पर यदि हमें यह परिभाषा स्वीकार नहीं ,यदि हमें मानव-मूल्यों का आदर बनाए रखना है, और यदि हम नहीं चाहतें कि हमारी आनेवाली पीढियाँ हमें धृणा से देखें ,तो हमें इस परिभाषा को बदलना होगा I अपनी धरती ,अपनी प्रकुति और अपने जीवन-मूल्यों के प्रति ,अपने कर्तव्यों का पालन करना होगा I

तभी यह सम्भव है कि हम अपनी संस्कृति,अपने समाज और अपनी सभ्यता कि एक नयी परिभाषा रच सकें I

६(अभिताभ का खजाना... ....से)

No comments: