Monday, September 4, 2017

(૮૭)..સ્વધર્મ

૦૪/૦૯/૨૦૧૭..(૮૭)..સ્વધર્મ
સંકલિત......                                ચિત્ર સૌજન્ય:ઈન્ટરનેટ  

સ્વધર્મ ગમે તેટલો વિગુણ હોય તોયે તેમાં જ રહીને માણસે પોતાનો વિકાસ સાધવો જોઈએ, કેમ કે સ્વધર્મમાં રહીને જ વિકાસ થઈ શકે છે. દરેક વ્યક્તિનો ધર્મ અલગ હોય છે. ચિંતનથી અને અનુભવથી વૃત્તિ પલટાતી જાય છે તેમ તેમ પહેલાંનો ધર્મ ખરતો જાય છે અને નવો આવી મળે છે. મમત કે
જબરજસ્તીથી એમાં કંઈ કરવાપણું હોતું નથી. 

બીજાનો ધર્મ સારામાં સારો લાગે તોયે તે સ્વીકારવામાં મારું કલ્યાણ નથી. સૂરજનું અજવાળું મને ગમે છે. એ પ્રકાશથી પોષાઈને હું વધું છું. સૂર્ય મારે સારું વંદવાયોગ્ય પણ ખરો. પણ એટલા ખાતર મારું પૃથ્વી પરનું રહેવાનું છોડી હું તેની પાસે જવા નીકળું તો બળીને ખાખ થઈ જાઉં. એથી ઊલટું પૃથ્વી પર રહેવાનું વિગુણ લાગે, ફીકું લાગે, સૂર્યની આગળ પૃથ્વી ભલ તદ્દન તુચ્છ હોય, તે પોતાના તેજથી ભલે ન પ્રકાશતી હોય, તો પણ સૂર્યનું તેજ સહન કરવાની શક્તિ કે તેવું સામર્થ્ય મારામાં ન હોય ત્યાં સુધી સૂરજથી આઘે પૃથ્વી પર રહીને જ મારે વિકાસ સાધવો જોઈએ. 
બીજાનો ધર્મ સહેલો લાગે તેથીયે સ્વીકારવાનો ન હોય. ઘણી વાર તો સહેલાપણાનો ખાલી ભાસ હોય છે. સંસારમાં સ્ત્રી-બાળકોનું જતન બરાબર થઈ શકતું ન હોય તેથી થાકીને કે કંટાળીને કોઈ ગૃહસ્થ સંન્યાસ લે તો તે ઢોંગ થાય અને અઘરું પણ પડે. તક મળતાં વેંત તેની વાસનાઓ જોર કર્યા વગર નહીં રહે. સંસારનો ભાર ખેંચાતો નથી માટે ચાલ જીવ વનમાં જઈને રહું એવું વિચારી વનમાં જઈને રહેનારો સંસારી પહેલાં ત્યાં જઈને નાની સરખી ઝૂંપડી ઊભી કરશે, પછી તેના બચાવને માટે તેની ફરતે વાડ કર્યા વગર નહીં રહે. 
સ્વધર્મ આપણને કુદરતી રીતે આવી મળે છે. સ્વધર્મને શોધવો પડતો નથી. આપણા જન્મની સાથે જ સ્વધર્મ જન્મે છે, બલકે તે આપણા જન્મની આગળથી આપણે માટે તૈયાર હોય છે એમ કહેવુંય ખોટું નથી. તે આપણા જન્મનો હેતુ છે. તે પાર પાડવાને આપણે જન્મ્યા છીએ. હું સ્વધર્મને માની ઉપમા આપું છું. મારી માની પસંદગી મારે આ જન્મમાં કરવાની બાકી રહેલી નથી. તે આગળથી થઈ ચૂકેલી છે, સિદ્ધ છે. મા ગમે તેવી હોય, મા મટી શકતી નથી. એવી જ સ્થિતિ સ્વધર્મની છે. આ જગતમાં આપણને સ્વધર્મ વગર બીજો કોઈ આશ્રય કે આધાર નથી. સ્વધર્મને ટાળવાની કોશિશ કરવી એ 'સ્વ'ને ટાળવા જેવું આત્મઘાતકીપણું છે. સ્વધર્મને આશ્રયે જ આપણે આગળ જઈ શકીએ. તેથી એ આશ્રય અથવા આધાર કોઈએ કદી પણ છોડવાનો હોય નહીં. 
વિનોબાજી
प्रवचन 27 : परधर्म, स्वधर्म और धर्म
गीता-दर्शन भाग एक
परधर्म, स्वधर्म और धर्म—(अध्‍याय—3) प्रवचननौवां
सूत्र:
श्रेयान्स्पधर्मों विगुणः परधर्मान्स्पनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: ।।35।।
अच्‍छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से, गुणरहित भी, अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में मरना भी कल्याण्स्कारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।
प्रत्येक व्यक्ति की अपनी निजता, अपनी इडिविजुएलिटी है। प्रत्येक व्यक्ति का कुछ अपना निज है; वही उसकी आत्मा है। उस निजता में ही जीना आनंद है और उस निजता से च्युत हो जाना, भटक जाना ही दुख है।
कृष्ण के इस सूत्र में दो बातें कृष्ण ने कही हैं। एक, स्वधर्म में मर जाना भी श्रेयस्कर है। स्वधर्म में भूलचूक से भटक जाना भी श्रेयस्कर है। स्वधर्म में असफल हो जाना भी श्रेयस्कर है, बजाय परधर्म में सफल हो जाने के।
स्वधर्म क्या है? और परधर्म क्या है? प्रत्येक व्यक्ति का स्वधर्म है। और किन्हीं दो व्यक्तियों का एक स्वधर्म नहीं है। पिता का धर्म भी बेटे का धर्म नहीं है। गुरु का धर्म भी शिष्य का धर्म नहीं है। यहां धर्म से अर्थ है, स्वभाव, प्रकृति, अंतःप्रकृति। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अंतःप्रकृति है, लेकिन है बीज की तरह बंद, अविकसित, पोटेंशियल है। और जब तक बीज अपने में बंद है, तब तक बेचैन है। जब तक बीज अपने में बंद है और खिल न सके, फूट न सके, अंकुर न बन सके, और फूल बनकर बिखर न सके जगत सत्ता में, तब तक बेचैनी रहेगी। जिस दिन बीज अंकुरित होकर वृक्ष बन जाता है, फूल खिल जाते हैं, उस दिन परमात्मा के चरणों में वह अपनी निजता को समर्पित कर देता है। फूल के खिले हुए होने में जो आनंद है, वैसा ही आनंद स्वयं में जो छिपा है, उसके खिलने में भी है। और परमात्मा के चरणों में एक ही नैवेद्य, एक ही फूल चढ़ाया जा सकता है, वह है स्वयं की निजता का खिला हुआ फूलफ्लावरिंग आफ इडिविजुएलिटी। और कुछ हमारे पास चढाने को भी नहीं है।
जब तक हमारे भीतर का फूल पूरी तरह न खिल पाए, तब तक हम संताप, दुख, बेचैनी, तनाव में जीएंगे। इसलिए जो व्यक्ति परधर्म को ओढ़ने की कोशिश करेगा, वह वैसी ही मुश्किल में पड़ जाएगा, जैसे चमेली का वृक्ष चंपा के फूल लाने की कोशिश में पड़ जाए। गुलाब का फूल कमल होने की कोशिश में पड़ जाए, तो जैसी बेचैनी में गुलाब का फूल पड जाएगा। और बेचैनी दोहरी होगी। एक तो गुलाब का फूल कमल का फूल कितना ही होना चाहे, हो नहीं सकता है; असफलता सुनिश्चित है। गुलाब का फूल कुछ भी चाहे, तो कमल का फूल नहीं हो सकता। न कमल का फूल कुछ चाहे, तो गुलाब का फूल हो सकता है। वह असंभव है। स्वभाव के प्रतिकूल होने की कोशिश भर हो सकती है, होना नहीं हो सकता।
इसलिए गुलाब का फूल कमल का फूल होना चाहे, तो कमल का फूल तो कभी न हो सकेगा, इसलिए विफलता, फ्रस्ट्रेशन, हार, हीनता उसके मन में घूमती रहेगी। और दूसरी उससे भी बड़ी दुर्घटना घटेगी कि उसकी शक्ति कमल होने में नष्ट हो जाएगी और वह गुलाब भी कभी न हो सकेगा। क्योंकि गुलाब होने के लिए जो शक्ति चाहिए थी, वह कमल होने में लगी है। कमल हो नहीं सकता; गुलाब हो नहीं सकेगा, जो हो सकता था, क्योंकि शक्ति सीमित है। उचित है कि गुलाब का फूल गुलाब का फूल हो जाए। और गुलाब का फूल चाहे छोटा भी हो जाए, तो भी हर्ज नहीं। न हो बड़ा फूल कमल का, गुलाब का फूल छोटा भी हो जाए, तो भी हर्ज नहीं है। और अगर न भी हो पाए, गुलाब होने की कोशिश भी कर ले, तो भी एक तृप्ति है; कि जो मैं हो सकता था, उसके होने की मैंने पूरी कोशिश की। उस असफलता में भी एक सफलता है कि मैंने वह होने की पूरी कोशिश कर ली, कुछ बचा नहीं रखा था, कुछ छोड़ नहीं रखा था।
लेकिन जो गुलाब कमल होना चाहे, वह सफल तो हो नहीं सकता। अगर किसी तरह धोखा देने में सफल हो जाए, आत्मवचना में, सेल्फ डिसेपान में सफल हो जाए सपना देख ले कि मैं कमल हो गया. सपने ही देख सकता है, परधर्म में कभी हो नहीं सकता। सपना देख सकता है कि मैं हो गया। भ्रम में पड़ सकता है कि मैं हो गया। तो वैसी सपने की सफलता से वह छोटासा गुलाब हो जाना, असफल, बेहतर है। क्योंकि एक तृप्ति का रस सत्य से मिलता है, स्वभ से नहीं मिलता है।
कृष्ण ने यहां बहुत बीजमंत्र कहा है। अर्जुन को वे कह रहे हैं कि स्वधर्म मेंजो तेरा धर्म हो उसकी तू खोज कर। पहले तू इसको खोज कि तू क्या हो सकता है। तू अभी दूसरी बातें मत खोज कि तेरे वह होने से क्या होगा। सबसे पहले तू यह खोज कि तू क्या हो सकता है। तू जो हो सकता है, उसका पहले निर्णय ले ले। और फिर वही होने में लग जा। और सारी चिंताओं को छोड़ दे। तो ही तू किसी दिन संतृप्ति के अंतिम मुकाम तक पहुंच सकता है।
परधर्म लेकिन हम ओढ़ लेते हैं। इसके दो कारण हैं। एक तो स्वधर्म तब तक हमें पूरी तरह पता नहीं चलता, जब तक कि फूल खिल न जाए। गुलाब को भी पता नहीं चलता तब तक कि उसमें से क्या खिलेगा, जब तक गुलाब खिल न जाए। तो बड़ी कठिनाई है, स्वधर्म क्या है! मर जाते हैं और पता नहीं चलता, जीवन हाथ से निकल जाता है और पता नहीं चलता कि मैं क्या होने को पैदा हुआ था! परमात्मा ने किस मिशन पर भेजा था! कौनसी यात्रा पर भेजा था। मुझे क्या होने को भेजा था! मैं किस बात का दूत होकर पृथ्वी पर आया था, इसका मरते दम तक पता नहीं चलता।
न पता चलने में सबसे बड़ी जो बाधा है, वह यह है कि चारों तरफ से परधर्म के प्रलोभन मौजूद हैं, जो कि पता नहीं चलने देते कि स्वधर्म क्या है। गुलाब तो खिला नहीं है, अभी उसे पता नहीं है, लेकिन बगल में कोई कमल खिला है, कोई चमेली खिली है, कोई चंपा खिली है। वे खिले हुए हैं, उनकी सुगंध पकड़ जाती है, उनका रूप पकड़ जाता है, उनका आकर्षण, उनकी नकल पकड़ जाती है और मन होता है कि मैं भी यही हो जाऊं। महावीर के पास से गुजरेंगे, तो मन होगा कि मैं भी महावीर हो जाऊं। खिला फूल है वहां। बुद्ध के पास से गुजरेंगे, तो मन होगा, कैसे मैं बुद्ध हो जाऊं! क्राइस्ट दिखाई पड़ जाएंगे, तो प्राण आतुर हो जाएंगे कि ऐसा ही मैं कब हो जाऊं! कृष्ण दिखाई पड़ जाएंगे, तो प्राण नाचने लगेंगे और कहेंगे, कृष्य कैसे हो जाऊं!
खुद का तो पता नहीं कि मैं क्या हो सकता हूं लेकिन आसपास खिले हुए फूल दिखाई पड़ सकते हैं। और उनमें भटकाव है। क्योंकि कृष्ण, इस पृथ्वी पर कृष्ण के सिवाय और कोई दूसरा नहीं हो सकता है। उस दिन नहीं, आज भी नहीं, कल भी नहीं, कभी नहीं। परमात्मा पुनरुक्ति करता ही नहीं है, रिपिटीशन करता ही नहीं है। परमात्मा बहुत मौलिक सर्जक है। उसने अब तक दुबारा एक आदमी पैदा नहीं किया। हजारों साल बीत गए कृष्ण को हुए, दूसरा कृष्ण पैदा नहीं हुआ। हजारों साल बुद्ध को हो गए, दूसरा बुद्ध पैदा नहीं हुआ। हालाकि लाखों लोगों ने कोशिश की है बुद्ध होने की, लेकिन कोई बुद्ध नहीं हुआ। और हजारों लोगों ने आकांक्षा की है क्राइस्ट होने की, लेकिन कहां कोई क्राइस्ट होता है! बस, एक बार।
इस पृथ्वी पर पुनरुक्ति नहीं है। पुनरुक्ति तो सिर्फ वे ही करते हैं, जिनके सृजन की क्षमता सीमित होती है। परमात्मा की सृजन की क्षमता असीम है। अक्सर बुढ़ापे में कवि अपनी पुरानी कविताओं को फिरफिर लिखने लगते हैं। चित्रकार चुक जाते हैं और फिर उन्हीं चित्रों को पेंट करने लगते हैं, जिनको वे कई दफा कर चुके। थोड़ा बहुत हेरफेर, और फिर वही पेंट करते हैं। आदमी की सीमाएं हैं।
खलील जिब्रान ने अपनी पहली किताब, प्रोफेट, इक्कीस साल की उम्र में लिखी, बस चुक गया। फिर बहुत किताबें लिखीं, लेकिन वे सब पुनरुक्तिया हैं। फिर प्रोफेट के आगे कोई बात नहीं कह सका। इक्कीस साल में मर गया, एक अर्थ में। एक अर्थ में,। खलील जिब्रान इक्कीस साल में मर जाए, तो कोई बड़ी हानि होने वाली नहीं थी। जो वह दे सकता था, दिया जा चुका था, चुक गया। अगर पिकासो के चित्र उठाकर देखें, तो पुनरुक्ति ही है फिर। फिर वहीवही दोहरता रहता है। फिर आदमी जुगाली करता है, जैसे भैंस घास खा लेती है और जुगाली करती रहती है। अंदर जो डाल लिया, उसी को निकालकर फिर चबा लेती है।
लेकिन परमात्मा जुगाली नहीं करता, अनंत है उसकी !? सृजनशीलता, इनफिनिट क्रिएटिविटी। जो एक दफा बनाया, बनाया। उस माडल को फिर नहीं दोहराता। लेकिन हमारा मन होता है कि किसी को देखकर हम आकर्षित हो जाते हैं कि ऐसे हो जाएं। बस, भूल की यात्रा शुरू हो गई।
परधर्म लुभाता है, क्योंकि परधर्म खिला हुआ दिखाई पड़ता है। स्वधर्म का पता नहीं चलता, क्योंकि वह भविष्य में है। परधर्म अभी है, पड़ोस में खिला है, वह आकर्षित करता है कि मैं भी ऐसा हो जाऊं।
कृष्ण जब कहते हैं कि स्वधर्म में हार जाना भी बेहतर है, परधर्म में सफल हो जाने के बजाए, तो वे यह कह रहे हैं कि परधर्म से सावधान। परधर्म भयावह है। इससे बड़ी फिअरफुल कोई चीज नहीं है जगत में, परधर्म से। दूसरे को अपना आदर्श बना लेने से बड़ी और कोई खतरनाक बात नहीं है, सबसे ज्यादा इससे भयभीत होना। लेकिन हम इससे कभी भयभीत नहीं हैं। हम तो अपने बच्चों को कहते हैं कि विवेकानंद जैसे हो जाओ, रामकृष्ण जैसे हो जाओ, बुद्ध जैसे हो जाओ, मोहम्मद जैसे हो जाओ। जैसे कि परमात्मा चुक गया हो, कि मोहम्मद को बनाकर अब कुछ और अच्छा नहीं हो सकता है, कि कृष्ण को बनाकर अब कुछ होने का उपाय नहीं रहा है। जैसे परमात्मा हार गया और अब आपके लिए सिर्फ रिपिटीशन के लिए भेजा है, पुनरुक्ति के लिए, डिट्टो आपको लगाकर भेज दिया है कि बस हो जाओ किसी के जैसे। जैसे कार्बन अज्ञात में छलांग लगाने, जहा कोई नहीं गया है।
नहीं, परमात्मा चुकता नहीं है। कृष्ण के इस सूत्र में बड़े कीमती अर्थ हैं, भयावह है परधर्म। अगर भयभीत ही होना है, तो मौत से भयभीत मत होना। कृष्ण नहीं कहेंगे कि मौत से डरो। जो आदमी कहता है, मौत से मत डरो, वह आदमी कहता है, परधर्म से डरो! मौत से भी ज्यादा खतरनाक है परधर्म! क्यों? क्योंकि परधर्म स्युसाइडल है। जिस आदमी ने दूसरे के धर्म को स्वीकार कर लिया, उसने आत्महत्या कर ली। उसने अपनी आत्मा को तो मार ही डाला, अब वह दूसरे की आत्मा की कापी ही बनने की कोशिश में रहेगा।
और कोई कितनी ही कोशिश करे, आवरण ही बदल सकता है। भीतर की आत्मा तो जो है अपनी, वही है। वह कभी दूसरे की नहीं हो सकती। भयावह है मृत्यु से भी ज्यादा परधर्म, क्योंकि आत्मघात है। आत्मघात जिसे हम कहते हैं, उससे भी ज्यादा भयावह है। क्योंकि जिसे हम आत्मघात कहते हैं, उसमें सिर्फ शरीर मरता है, और जिसे कृष्ण भयावह कह रहे हैं, उसमें आत्मा को ही हम दबाकर मार डालते हैं, आत्मा को ही घोंट डालते हैं।
दूसरे के धर्म से सावधान होने की जरूरत है और स्वधर्म पर दृष्टि लगाने की जरूरत है। इस बात की खोज करने की जरूरत है कि मैं क्या होने को हूं? मैं क्या हो सकता हूं? मेरे भीतर छिपा बीज क्या मांगता है? और साहसपूर्वक उस यात्रा पर निकलने की जरूरत है।
इसलिए धर्म सबसे बड़ा दुस्साहसिक काम है, सबसे बड़ा एडवेंचर है। न तो चांद पर जाना इतना दुस्साहसिक है, न एवरेस्ट पर चढ़ना इतना दुस्साहसिक है, न प्रशांत महासागर की गहराइयों में डूब जाना इतना दुस्साहसिक है, न ज्वालामुखी में उतर जाने में इतना दुस्साहस है, जितना दुस्साहस स्वधर्म की यात्रा पर निकलने में है। क्यों? क्योंकि भला चाहे एवरेस्ट पर कोई न पहुंचा हो, लेकिन बहुत लोगों ने पहुंचने की कोशिश की है। भला कोई ऊपर तक तेनसिह और हिलेरी के पहले न पहुंचा हो, लेकिन आदमी के चरणचिह्न काफी दूर तक, एजॉक्सिमेटली करीब करीब पहुंच गए हैं। यात्री जा चुके उस रास्ते पर। चाहे प्रशात महासागर में कोई इतना गहरे न गया हो, लेकिन लोग जा चुके हैं। लोग निर्णायक रास्ता छोड़ गए हैं। लेकिन स्वधर्म की यात्रा पर, आपके पहले आपके स्वधर्म की यात्रा पर कोई भी नहीं गया, बिलकुल अननोन है; एक इंच कोई नहीं गया। आप ही जाएंगे पहली बार एकदम अज्ञात में छलांग लगाने, जहां कोई नहीं गया है।
इसलिए परधर्म आकर्षक मालूम पड़ता क्योंकि परधर्म में सिक्योरिटी मालूम पड़ती है। नक्यत मिलता है न परधर्म में! हमें पता है, बुद्ध ने क्याक्या किया है। तो ठीक वैसे ही पालथी मारकर हम भी कुछ करें, तो नक्यग़ हमारे पास होता है। हमें पता है, कृष्ण ने क्या किया। तो ठीक है, हम भी एक बांसुरी खरीद लाएं और किसी झाडू के नीचे खडे होकर बजाएं। नक्यो हैं पास में। परधर्म में नक्यग़ है, स्वधर्म अनचार्टर्ड है। कोई नक्यग़ नहीं, कोई कुतुबनुमा नहीं, कोई रास्ता बताने वाला नहीं। क्योंकि आप ही पहली दफा उस यात्रा पर जा रहे हैं, जो आपका स्वधर्म है। इसलिए आदमी डरकर दूसरे के रास्ते पर चला जाता है। बंधे बंधाए रास्ते, तैयार पगडंडियां, राजपथ लुभाते हैं कि बंधा हुआ रास्ता है, लोग उस पर जा चुके हैं पहले भी, मैं भी इस पर चला जाऊं।
लेकिन ध्यान रहे, दूसरे के रास्ते से कोई अपनी मंजिल पर नहीं पहुंच सकता है। जब रास्ता दूसरे का, तो मंजिल भी दूसरे की। और दूसरे की मंजिल पर पहुंच जाने से बेहतर, अपनी मंजिल को खोजने में भटक जाना है। क्योंकि भटकना भी सीख बन जाती है। और भूल भी सुधारी जा सकती है। और भूल से, आदमी भूल करने से बचता है। भूल ज्ञान है। अपनी खोज में भटकना और गिरना भी उचित। दूसरे की खोज में अगर बिलकुल राजपथ है, तो भी व्यर्थ, क्योंकि वह आपके मंदिर तक नहीं पहुंचता।
स्वधर्म दुस्साहस है। अज्ञात दुस्साहस है। अनजान, अपरिचित, यहां रास्ता बनाबनाया नहीं है। यहां तो चलना और रास्ता बनाना, एक ही बात के दो ढंग हैं कहने के। यहां तो चलना ही रास्ता बनाना है। एक बीहड़ जंगल में आप चलते हैं और रास्ता बनता है। जितना चलते हैं, उतना ही बनता है। बेकार है। क्योंकि रास्ता होना चाहिए चलने के पहले, तो उसका कोई सहारा मिलता है। आप चलते हैं जंगल में, लताएं टूट जाती हैं, वृक्षों को हटा लेते हैं, जगह साफ कर लेते हैं, लेकिन उससे कोई हल नहीं होता। आगे फिर रास्ता बनाना पडता है।
स्वधर्म में चलना ही मार्ग का निर्माण है। इसलिए भटकन तो निश्चित है। लेकिन भटकन से जो भयभीत है, वह कहीं परधर्म की सुरक्षापूर्ण, सिक्योर्ड यात्रा पर निकल गया, तो कृष्ण कहते हैं, वह और भी भयपूर्ण है। क्योंकि यहां तुम भटक सकते थे, लेकिन वहां तुम पहुंच ही नहीं सकते हो। भटकने वाला पहुंच सकता है। भटकता वही है, जो ठीक रास्ते पर होता है।
जरा इसे समझ लेना उचित होगा। भटकता वही है, जो ठीक रास्ते पर होता है, क्योंकि तभी उसे भटकाव का पता चलता है कि भटक गया। लेकिन जो बिलकुल गलत रास्ते पर होता है, वह कभी नहीं भटकता, क्योंकि भटकने के लिए कोई मापदंड ही नहीं होता। दूसरे के रास्ते पर आप कभी नहीं भटकेंगे, रास्ता मजबूती से दिखाई पड़ेगा; कोई चल चुका है। आप लकीर पीटते हुए चले जाएं। लेकिन स्वधर्म के रास्ते पर भटकाव का डर है, साहस की जरूरत है।
इसलिए मैं कहता हूं, धर्म बहुत जोखिम है। और उसी जोखिम की वजह से, उसी रिस्क की वजह से हम दूसरे का धर्म चुन लेते हैं। बेटा बाप का चुन लेता है, शिष्य गुरु का चुन लेता है, पीढ़ियांदरपीढ़ियां एकदूसरे के पीछे चलती चली जाती हैं। कोई इसकी फिक्र नहीं करता कि दूसरे का धर्म मेरा धर्म नहीं हो सकता है। मैं एक स्वभाव लेकर आया हूं जिसका अपना स्वर है, जिसका अपना संगीत है, जिसकी अपनी सुगंध है, जिसका अपना जीने का ढंग है। उस ढंग को मुझे विकसित करना होगा।
कृष्ण बहुत जोर देकर अर्जुन से कहते हैं, तू ठीक से पहचान ले, तेरा स्वधर्म क्या है। और अर्जुन अगर आंख बंद करे और जरा ध्यान करे, तो वह कह सकता है कि उसका स्वधर्म क्या है। हम कभी आंख बंद नहीं करते, नहीं तो हम भी कह सकते हैं कि हमारा स्वधर्म क्या है। हम कभी खयाल नहीं करते कि हमारा स्वधर्म क्या है। और इसीलिए कोई चीज हमें तृप्त नहीं करती है। जहां भी जाते हैं, वहीं अतृप्ति।

आज सारी दुनिया उदास है और लोग कहते हैं, जीवन अर्थहीन है। अर्थहीन नहीं है जीवन, सिर्फ स्वधर्म खो गया है। इसलिए अर्थहीनता है। दूसरे के काम में अर्थ नहीं मिलता। अब एक आदमी जो गणित कर सकता है, वह कविता कर रहा है! अर्थहीन हो जाएगी कविता। सिर्फ बोझ मालूम पड़ेगा कि इससे तो मर जाना बेहतर है। यह कहा का नारकीय काम मिल गया। अब जो गणित कर सकता है, वह कविता कर रहा है। गणित और बात है, बिलकुल और। उसका काव्य से कोई लेनादेना नहीं है। काव्य में दो और दो पांच भी हो सकते हैं, तीन भी हो सकते हैं। गणित में दो और दो चार ही होते हैं। वहां इतनी सुविधा नहीं है, इतनी लोच नहीं है। गणित बहुत सख्त है। काव्य बहुत लोचपूर्ण, फ्लेक्सिबल है। काव्य तो एक बहाव है। गणित एक बहाव नहीं है।
अब जो गणितश हो सकता था, वह कवि होकर अगर बैठ जाए, तो जीवनभर पाएगा कि किसी मुसीबत में पड़ा है; कैसे छुटकारा हो इस मुसीबत से! जो कवि हो सकता था, वह गणितज्ञ हो जाए, तो कठिनाई खड़ी होने वाली है, बहुत कठिनाई खड़ी हो जाने वाली है। क्योंकि इन दोनों के जीवन को देखने के ढंग ही भिन्न हैं। इन दोनों के सोचने की प्रक्रिया अलग है। इनके पास आंखें एकसी दिखाई पड़ती हैं, एकसी हैं नहीं।
मैंने सुना है, एक जेलखाने में दो आदमी एक ही दिन बंद किए गए। सांझ, पूर्णिमा की रात, चांद निकला है। दोनों सीखचों को पकड़कर खड़े हैं। एक के चेहरे पर इतना आह्लाद है कि जैसे उसे स्वर्ग का खजाना मिल गया हो, जेल के सीखचों के भीतर! दूसरे के चेहरे पर ऐसा क्रोध है कि अगर उसका बस चले, तो सब आग लगा दे, जैसे नर्क में खड़ा हो। तो उस दूसरे आदमी ने पास खड़े आदमी से कहा, इतने प्रसन्न दिखाई पड़ रहे हो, पागल तो नहीं हो! यह जेलखाना है; इतनी प्रसन्नता? और सामने देखते हो, डबरा भरा हुआ है, गंदगी फैली हुई है, बास आ रही है, मच्छडकीडे घूम रहे हैं। कहां बंद किया हुआ है हमें लाकर! उस दूसरे आदमी ने कहा, तुमने कहा तो मुझे याद आया कि जेल के भीतर हूं अन्यथा मैं पूर्णिमा के चांद के पास पहुंच गया था। मुझे पता ही नहीं था कि मैं जेल के भीतर हूं। और तुम कहते हो तो मुझे दिखाई पड़ता है कि सामने डबरा है, अन्यथा पूर्णिमा का चांद जब ऊपर उठा हो, तो डबरे सिर्फ पागल देखते हैं, डबरे को देखने की फुर्सत कहां? आंख कहां?
ये दोनों आदमी एक ही साथ खडे हैं, एक ही जेलखाने में। इन दोनों के पास एकसी आंखें हैं, लेकिन एकसा स्वधर्म नहीं है, स्वधर्म बिलकुल भिन्न है। अब वह आदमी कहता है, मुझे पता ही नहीं था कि मैं जेलखाने में हूं। जब पूर्णिमा का चांद निकला हो, तो कैसे पता हो सकता है कि जेलखाने में हूं। वह दूसरा आदमी कहेगा, पागल हो गए हो! जब जेलखाने में हो, तो पूर्णिमा का चांद निकल ही कैसे सकता है? ठीक है न! जब जेलखाने में बंद है आदमी, तो पूर्णिमा का चांद निकलता है कहीं जेलखानों में! जेलखानों में कभी पूर्णिमा नहीं होती, वहा अमावस ही रहती है। पर ये दो आदमी, इनके देखने के दो ढंग। और दो ढंग ही होते, तो भी ठीक था। जितने आदमी उतने ढंग हैं।
स्वधर्म का मतलब है, पृथ्वी पर जितनी आत्माएं हैं, उतने धर्म हैं, उतने स्वभाव हैं। दो कंकड़ भी एक जैसे खोजना मुश्किल हैं, दो आदमी तो खोजना बहुत ही मुश्किल है। सारी पृथ्वी को छान डालें, तो दो कंकड़ भी नहीं मिल सकते, जो बिलकुल एक जैसे हों। आदमी बड़ी घटना है। कंकड़ों तक के संबंध में परमात्मा व्यक्तित्व देता है, तो आदमी के संबंध में तो देता ही है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, खोज, पीछे देख, लौटकर देख, तू क्या हो सकता है! अर्जुन को कृष्ण, अर्जुन से भी ज्यादा बेहतर ढंग से जानते हैं। कृष्ण की आंखें अर्जुन को आरपार देख पाती हैं।
अब पश्चिम में मनोविज्ञान कह रहा है कि प्रत्येक नर्सरी स्कूल में, किंडरगार्टन में, प्रत्येक प्राइमरी स्कूल में मनोवैज्ञानिक होने चाहिए, जो प्रत्येक बच्चे का एप्टिटपूडअगर कृष्ण की भाषा में कहें, तो स्वधर्मउस बच्चे का झुकाव पता लगाएं। और मनोवैज्ञानिक कहे कि इस बच्चे का यह झुकाव है, तो बाप उस बच्चे का कुछ भी कहे कि इसको डाक्टर बनाना है, अगर मनोवैज्ञानिक कहे कि चित्रकार, तो बाप की नहीं चलनी चाहिए। सरकार कहे कि इसे डाक्टर बनाना है, तो सरकार की नहीं चलनी चाहिए। सरकार कितना ही कहे कि हमें डाक्टरों की जरूरत है, हमें पेंटर की जरूरत नहीं है, तो भी नहीं चलनी चाहिए। क्योंकि यह आदमी डाक्टर हो ही नहीं सकता। ही, डाक्टर की डिग्री इसे मिल सकती है, लेकिन यह डाक्टर हो नहीं सकता। इसके पास चिकित्सक का एप्टिटयूड नहीं है। इसके पास वह गुणधर्म नहीं है।
इसलिए पश्चिम का मनोवैज्ञानिक इस सत्य को समझने के करीब आ गया है। और वह कहता है, अब तक बच्चों के साथ ज्यादती हो रही है। कभी बाप तय कर लेता है कि बेटे को क्या बनाना है, कभी मां तय कर लेती है, कभी कोई तय कर लेता है। कभी समाज तय कर देता है कि इंजीनियर की ज्यादा जरूरत है। कभी बाजार तय कर देता है। मार्केट वेत्थू होती हैडाक्टर की ज्यादा है, इंजीनियर की ज्यादा है, कभी किसी की ज्यादा हैइन सब से तय हो जाता है। सिर्फ एक व्यक्ति, जिसे तय किया जाना चाहिए था, वह भर तय नहीं करता है। वह उस व्यक्ति की अंतरात्मा से कभी नहीं खोजा जाता है कि यह आदमी क्या होने को है। बाजार तय कर देगा, मांबाप तय कर देंगे, हवा तय कर देगी, फैशन तय कर देगी कि क्या होना है।
स्वभावत: मनुष्य विजड़ित हो गया है, क्योंकि कोई मनुष्य वह नहीं हो पाता है, जो हो सकता है। और जब कभी भी हम करोड़ों लोगों में एकाध आदमी वही हो जाता है, जौ होने को पैदा हुआ था, तो उसका आनंद और है, उसका नृत्य और है, उसका गीत और है। उसकी जिंदगी में जो खुशी है; फिर हम तड़पते हैं कि यह खुशी हमको कैसे मिले? कौनसा मंत्र पढ़ें, कौनसा ग्रंथ पढ़ें, यह खुशी कैसे मिले? सच बात यह है कि खुशी सिर्फ स्वधर्म के फुलफिलमेंट से मिलती है और किसी तरह मिलती नहीं है। बाकी सब समझाने की तरकीबें हैं, कन्सोलेशस हैं। सिर्फ आदमी को आनंद उसी दिन मिलता है, जिस दिन उसके भीतर का बीज पूरा खिल जाता है और फूल बन जाता है। उस दिन वह परमात्मा के चरणों में समर्पित कर पाता है। उस दिन वह धन्यभागी हो जाता है। उस दिन वह कह पाता है, प्रभु तेरी अनुकंपा है, तेरी कृपा है, धन्यभागी हूं कि तूने मुझे पृथ्वी पर भेजा है। अन्यथा जिंदगीभर वह कहता रहता है कि मेरे साथ अन्याय हुआ है, मुझे क्यों पैदा किया है? क्या वजह है मुझे सताने की? मुझे क्यों न उठा लिया जाए?
कामू ने अपनी एक किताब का प्रारंभ एक बहुत अजीब शब्द से किया है। लिखा है, दि ओनली मेटाफिजिकल प्राब्लम बिफोर धमन काइंड इज स्युसाइडमनुष्य जाति के सामने एक ही धार्मिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक प्रश्न है, सवाल है और वहू है, आत्महत्या। कि हम आत्महत्या क्यों न कर लें? रहने का क्या प्रयोजन है? क्या अभिप्राय है? क्या अर्थ है? ठीक कहता है वह।
एक ओर कहां हम कृष्ण को देखते हैं बांसुरी बजाते, नाचते, कहां एक ओर हम दुखपीड़ा से भरे हुए लोग! कहां एक ओर बुद्ध कहते हैं, परम शांति है, कहां एक ओर हम कहते हैं, शांति परिचित नहीं है, कोई पहचान नहीं है। कहां एक ओर क्राइस्ट कहते हैं, प्रभु का राज्य, और कहां हम एक ओर, जहां सिवाय नर्क के और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता है। या तो ये सब पागल हैं, या हम चूक गए हैं कहीं। जहां ये नहीं चूके हैं, वहा हम चूक गए हैं। चूक गए हैं, स्वधर्म से चूक गए हैं।
इसलिए मैं भी दोहराता हूं, स्वधर्म में असफल हो जाना भी श्रेयस्कर, परधर्म में, सफल हो जाना भी अश्रेयस्कर। स्वधर्म में मर जाना भी उचित, परधर्म में अनंतकाल तक जीना भी नर्क। स्वधर्म में एक क्षण भी जो जी ले, वह मुक्ति को अनुभव कर लेता है। एक क्षण भी अगर मैं पूरी तरह वही हो जाऊं, जो परमात्मा ने चाहा है कि मैं होऊं, बस, उससे ज्यादा प्राणों की और कोई प्यास नहीं है।

ओशो

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